जन्मदिन विशेष – 9 दिसंबर
राहत
फ़तह अली ख़ान का जन्म 9 दिसंबर 1974 को फ़ैसलाबाद, पंजाब, पाकिस्तान में हुआ था। वे
प्रसिद्ध सूफ़ी गायक नुसरत फ़तह अली ख़ान के भतीजे हैं। राहत बॉलीवुड के प्रसिद्ध पार्श्वगायक हैं।
‘मेरे
रश्क-ए-क़मर’ यह गीत या ग़ज़ल आपने ज़रूर सुनी होगी और कानों में इसकी धुन आते ही गुनगुनाई भी होगी। यह ग़ज़ल मशहूर पाकिस्तानी शायर
फ़ना बुलंद शहरी ने लिखी है। उनका मूल नाम मुहम्मद हनीफ़ था और फ़ना बुलंद
शहरी उनका तख़ल्लुस। वे मशहूर शायर क़मर जलालवी के शिष्य थे। ग़ज़ल को पहली
बार उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने
1988 में पेश की थी। इस
ग़ज़ल में शायर ने अपना तख़ल्लुस
भी लिखा है जो हर शायर लिखता है। पर
यहाँ तख़ल्लुस फ़ना का
उपयोग किया है जिसका दूसरा अर्थ मृत्यु भी होता है। ‘ऐ फ़ना शुक्र है आज बाद-ऐ-फ़ना, उसने रख ली मेरे प्यार की आबरू’
मतलब मेरे प्रियतम ने मेरी मृत्यु के बाद भी मेरी मुहब्बत को जो इज़्ज़त दी है उसके लिए मैं शुक्रगुज़ार हूँ। इस ग़ज़ल को कई रूप में गाया गया है। 2017 में रिलीज़ हुई फ़िल्म बादशाहो
का गाना भी इसी ग़ज़ल पर आधारित है जिसे राहत फ़तह अली ख़ान ने गाया है।
आपके
लिए मूल ग़ज़ल पेश है
-
मेरे
रश्क-ए-क़मर तूने पहली नज़र,
जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया।
बर्क़-सी गिर गई काम ही कर गई, आग ऐसी लगाई मज़ा आ गया।।
जाम
में घोलकर हुस्न की
मस्तियाँ, चाँदनी मुस्कराई
मज़ा आ गया।
चाँद
के साये में ऐ मेरे साक़िया, तूने ऐसी पिलाई मज़ा आ गया।।
नशा
शीशे में अँगड़ाई लेने लगा,
बज़्म-ए-रिंदा में साग़र
खनकने लगा।
मयकदे पे बरसने लगी मस्तियाँ, जब घटा गिर
के छाई मज़ा आ गया।।
बेहिजाबाना वो सामने आ गए और जवानी जवानी से
टकरा गई।
आँख
उनकी लड़ी यों मेरी
आँख से, देखकर ये लड़ाई मज़ा आ गया।।
आँख
में थी हया हर मुलाक़ात पर, सुर्ख़ आरिज़
हुए वस्ल की बात पर।
उसने
शरमा के मेरे सवालात
पे, ऐसे गरदन झुकाई मज़ा आ गया।।
शैख साहिब का ईमान बिक ही गया, देखकर
हुस्न-ए-साक़ी पिघल ही गया।
आज
से पहले ये कितने मगरूर थे, लूट
गई पारसाई मज़ा
आ गया।।
ऐ
‘फ़ना’ शुक्र है आज बाद-ए-फ़ना, उसने रख ली मेरे प्यार की आबरू।।
अपने
हाथों से उसने मेरी
क़ब्र पर, चादर-ए-गुल चढ़ाई
मज़ा आ गया।।
कठिन शब्दों के अर्थ -
रश्क
= जलन
क़मर = चाँद
रश्क-ए-क़मर – नायिका इतनी ख़ूबसूरत
है कि चाँद को भी उससे जलन होती है।
बर्क़ = बिजली
साक़िया
= शराब पिलाने वाला/वाली
बेहिजाबाना = बिना
परदे के
हया
= शरम
आरिज़
= गाल
वस्ल
= मिलन
हुस्न-ए-साक़ी = शराब पिलाने वाली का सौंदर्य
मगरूर
= घमंडी
पारसाई
= छूकर सोना बना देने का वरदान
चादर-ए-गुल = फूलों की
चादर
Re-typed by – Aditya Sinai Bhangui